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Prashant Kishor की भाषा बनाम बिहार की क्षेत्रीय राजनीति की सरल शैली की तुलना


🔹 प्रशांत किशोर की भाषा की विशेषता

  • PK जब बोलते हैं तो उनकी भाषा तर्कसंगत, विश्लेषणात्मक और नपी-तुली होती है।
  • वे अक्सर “नीति, व्यवस्था, शिक्षा सुधार, भविष्य की योजना” जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं।
  • उनकी शैली पॉलिसी एनालिस्ट जैसी लगती है, न कि गाँव-देहात की रोज़मर्रा की भाषा जैसी।

🔹 बिहार की जनता और भाषा का रिश्ता

  • बिहार की राजनीति में भावनात्मक और सरल भाषा का हमेशा ज़्यादा असर रहा है।
  • जैसे:
    • लालू प्रसाद यादव – ठेठ भोजपुरी/मैथिली टोन, किस्से-कहानियाँ, हास्य से जनता को जोड़ना।
    • नीतीश कुमार – सीधी भाषा, विकास और सुशासन का जिक्र, गाँव-गाँव में पैठ।
    • रामविलास पासवान – दलित-बहुजन समाज की पीड़ा को सीधे शब्दों में व्यक्त करना।

👉 इन नेताओं की भाषा में सहजता, लोकल टच और भावनात्मक अपील थी, जो लोगों को तुरंत जोड़ देती थी।

🔹 PK की चुनौती

  • बिहार की जनता अकादमिक भाषा से उतना नहीं जुड़ती जितना लोकल टोन और कहावतों से।
  • PK के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी बात को गाँव की कहावतों, किस्सों, और सीधी-सादी हिंदी/स्थानीय बोली में पेश करें।
  • अभी उनकी भाषा “सोचने वाली” है, जबकि जनता को ज़्यादातर चाहिए “महसूस करने वाली” भाषा।

🔹 उदाहरण

  • PK कहते हैं: “अगर बिहार को विकसित करना है तो शिक्षा व्यवस्था में क्रांति लानी होगी।”
  • जनता से जुड़ने वाली भाषा: “बच्चा अगर पढ़-लिख नहीं पाया, तो उसका जीवन अधूरा रह जाएगा। यही हाल पूरे बिहार का है, अब स्कूल को बदलना होगा।”

✅ निष्कर्ष:
आप सही हैं, PK की भाषा में सहजता और लोकल टच की कमी है, जिस कारण जनता उनसे भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पा रही।
अगर वे अपनी शैली को थोड़ा लालू की तरह मसालेदार, और नीतीश की तरह सीधी-सादी बना लें, तो उनका कनेक्शन ज़्यादा गहरा हो सकता है।



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