मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह का कमलनाथ पर भारी पड़ने के ये पाँच कारण - mama news
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणामों के आ रहे रुझानों में बीजेपी को बहुमत मिलता दिख रहा है जबकि कांग्रेस को काफ़ी नुक़सान हुआ है.
2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी. 2018 के चुनावों में यहां कांग्रेस ने 114 सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि बीजेपी को 109 सीटें मिली थीं.
पहले कांग्रेस ने सरकार बना ली थी लेकिन ये सरकार 20 महीने ही टिक पाई थी.
इस बार के विधानसभा चुनाव में ये मानकर चला जा रहा था कि कांग्रेस बीजेपी को कड़ी टक्कर देगी और हो सकता है कि बीजेपी पिछड़ जाए लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है.
राज्य की 230 सीटों में बीजेपी 150 से अधिक सीटों पर आगे चल रही है जबकि कांग्रेस 70 पर सिमटती दिख रही है.
एग्ज़िट पोल में भी कांग्रेस-बीजेपी में कड़ी टक्कर का अनुमान लगाया गया था लेकिन रुझान एकदम उलट हैं.
तो आख़िर क्या कारण हैं जो बीजेपी ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस पर ऐसी मज़बूत बढ़त बनाई. आइये इन पाँच फ़ैक्टर से समझते हैं.
मध्य प्रदेश में मामा के नाम से चर्चित राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एक लोकप्रिय नेता हैं. बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं घोषित किया था लेकिन पूरे चुनाव प्रचार का ज़िम्मा उन्होंने अपने कंधों पर उठा रखा था.
शिवराज सिंह चौहान की छवि एक उदार नेता की रही है. साथ ही जनता से उनके कनेक्ट करने की कला ने उन्हें राज्य में ख़ासा पहचान दिलाई है.
बीजेपी को जीत दिलाने में आदिवासी और पिछड़ी जाति के वोटों की अहम भूमिका रही है. शिवराज सिंह चौहान ख़ुद किरार जाति के हैं जो मध्य प्रदेश में ओबीसी श्रेणी में आती है.
बीजेपी ने पहली बार किसी पिछड़ी जाति के व्यक्ति को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया था और वह थीं उमा भारती.
आठ दिसंबर, 2003 से पहले मध्य प्रदेश के सारे मुख्यमंत्री सवर्ण बने थे. ज़ाहिर है बीजेपी को इसका फ़ायदा भी मिला. मध्य प्रदेश कांग्रेस में आज की तारीख़ में या पहले भी कोई बड़ा ओबीसी नेता नहीं उभर पाया.
2008 में राजनीति विज्ञानी तारिक़ थाचिल और रोनल्ड हेरिंग का एक रिसर्च पेपर आया था. इस रिसर्च पेपर में इन्होंने मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाक़ों में आरएसएस की भूमिका को अहम बताया था.
इसमें कहा गया है कि आदिवासी इलाक़ों में ज़मीनी स्तर पर आरएसएस ने अपने पैर जमाए हैं.
तारिक़ और रोनल्ड की रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, इससे न केवल आरएसएस की लोकप्रियता बढ़ी बल्कि हिन्दू पहचान को भी बढ़ावा मिला. पिछले तीन चुनावों से बीजेपी आदिवासी इलाक़ों में बड़ी जीत हासिल करती आ रही है.
शिवराज सिंह चौहान के राजनीतिक जीवन की शुरुआत अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से होती है.
1988 में भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष बने. 1990 में पहली बार बीजेपी ने चौहान को बुधनी से विधानसभा चुनाव में खड़ा किया. चौहान ने पूरे इलाक़े की पदयात्रा की थी और पहला ही चुनाव जीतने में सफल रहे. तब चौहान की उम्र महज 31 साल थी.
1991 में 10वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव हुए. अटल बिहारी वाजपेयी इस चुनाव में दो जगह से खड़े थे. एक उत्तर प्रदेश के लखनऊ और दूसरा मध्य प्रदेश के विदिशा से.
वाजपेयी को दोनों जगह से जीत मिली. उन्होंने सांसदी के लिए लखनऊ को चुना और विदिशा को छोड़ दिया. सुंदरलाल पटवा ने विदिशा के उपचुनाव में शिवराज सिंह चौहान को पार्टी का प्रत्याशी बनाया और वो पहली बार में ही चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच गए.
2. लाड़ली बहन योजना
शिवराज सिंह चौहान की सरकार कई लोकप्रिय योजनाओं के लिए भी जानी जाती है. यह सरकार लड़कियों के जन्म पर एक लाख रुपए का चेक देती है, जिससे 18 साल की उम्र में पैसे मिलते हैं.
ग़रीबों के घरों में किसी की मौत पर पांच हज़ार रुपए अंत्येष्टि के लिए देती है. सरकार सामूहिक शादियां कराती हैं और ख़र्च भी ख़ुद ही उठाती है.
आदिवासी और दलितों के बीच सरकार की यह योजना काफ़ी लोकप्रिय हुई है.
इनके अलावा शिवराज सरकार की लाड़ली बहन योजना की ख़ासी चर्चा है. इस योजना को बीजेपी की जीत में अहम भूमिका निभाने वाला बताया जा रहा है.
इस योजना के तहत मध्य प्रदेश में 23 से लेकर 60 साल तक की उम्र वाली एक करोड़ 25 लाख महिलाओं के खाते खोले गए हैं, जिनमें प्रति माह एक हज़ार रुपये की रक़म ट्रांसफ़र करने की प्रक्रिया चल रही है.
वैसे तो योजना शुरू करने की घोषणा मार्च महीने में ही की गई थी. लेकिन इसको पूरी तरह से अमल में लाने की प्रक्रिया को तीन महीने लग गए.
इस दौरान प्रदेश के शहरी और ग्रामीण अंचलों में महिलाओं को इसके बारे में बताया गया था और फिर उनके बैंक खाते खोलने और योजना के लिए उनके पंजीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई.
3. सिंधिया की भूमिका
साल 2018 के विधानसभा चुनाव में ग्लावियर-चंबल संभाग की कुल 34 सीटों में से कांग्रेस को 26 सीटों पर जीत मिली थी.
लेकिन 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ की सरकार गिराई तो 22 विधायकों ने कांग्रेस और विधायकी से इस्तीफ़ा दे दिया था.
इसके बाद इन सीटों पर उप-चुनाव हुआ और 22 में से 16 लोग बीजेपी के टिकट से जीतने में कामयाब रहे थे.
इस बार भी बीजेपी ने सिंधिया के इन सभी 16 वफ़ादारों को टिकट दिया था. सिंधिया 22 में से उन लोगों को भी बीजेपी का टिकट दिलाने में कामयाब रहे, जिन्हें उपचुनाव में हार मिली थी.
इस बार भी इस इलाक़े में बीजेपी को बढ़त मिलती दिख रही है.
4. कांग्रेस में सवर्ण नेताओं का दबदबा
जंग में विरोधी पक्ष की कमज़ोरी भी आपकी बड़ी जीत में अहम योगदान देती है. कांग्रेस ने इस बार भी चुनाव की ज़िम्मेदारी कमलनाथ को दी हुई थी.
अब से पहले भी जब-जब राज्य में कांग्रेस की सरकार बनी, सत्ता की बागडोर सवर्ण नेताओं के हाथों में रही. अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह और कमलनाथ तीनों ही का ताल्लुक पिछड़ी जातियों से नहीं रहा है.
पिछड़ी जाति का पहला मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय बीजेपी को मिला जब उन्होंने 2003 में उमा भारती को ये पद दिया. शिवराज सिंह चौहान भी ओबीसी समुदाय से संबंध रखते हैं.
साल 1993 में कांग्रेस को सुभाष यादव को मुख्यमंत्री बनाने का मौक़ा मिला था जो ओबीसी समुदाय से आते हैं लेकिन उनकी जगह कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को चुना था.
मध्य प्रदेश में कांग्रेस 42 सालों तक सत्ता में रही. इन 42 सालों में 20 साल ब्राह्मण, 18 साल ठाकुर और तीन साल बनिया (प्रकाश चंद्र सेठी) मुख्यमंत्री रहे. यानी 42 सालों तक कांग्रेस राज में सत्ता के शीर्ष पर सवर्ण रहे.
एक अनुमान के मुताबिक़, मध्य प्रदेश में सवर्णों की आबादी महज़ दस फ़ीसदी है बाक़ी दलित, आदिवासी और ओबीसी हैं.
5. कमलनाथ और दिग्विजय सिंह अलग-अलग ध्रुव
हालिया सालों में मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी कई ध्रुवों में बँटी रही है. पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का ख़ेमा था.
सिंधिया के कांग्रेस से आउट होने के बाद कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का ख़ेमा बन गया. टिकट बंटवारे के दौरान दोनों नेताओं के बीच मतभेदों की ख़बरें भी सामने आईं.
सोशल मीडिया पर एक वीडियो भी वायरल हुआ जिसमें मध्य प्रदेश के राज्य प्रमुख कमलनाथ पार्टी कार्यकर्ताओं से कहते दिख रहे हैं कि ‘दिग्विजय सिंह और उनके बेटे जयवर्धन सिंह के कपड़े फाड़ दो.’
जयवर्धन सिंह भी कांग्रेस के टिकट पर अपनी पारंपरिक सीट राघोगढ़ से उम्मीदवार हैं.
कमलनाथ ने उस वीडियो में कई टिकटों के बंटवारे में दिग्विजय सिंह की भूमिका होने की बात कही थी. माना जा रहा है कि टिकटों के बँटवारे में दो ध्रुवों का ख़ामियाज़ा भी कांग्रेस को भुगतना पड़ा है.